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गौतमस्वामिनः विलाप: केवलज्ञानप्राप्तिश्च
कल्पसूत्रे
गये [तओ पच्छा मोहवसंगओ सो विलवइ] उसके बाद मोह के वशीभूत होकर वे सशब्दाथे
विलाप करने लगे [भो ! भो ! भदंत महावीर ! हा! हा! वीर ! एयं किं कयं भगवया || ॥७२५||
जं चरणपज्जुवासगं में दूरे पेसिय मोक्खं गए] हे भगवन् ! महावीर ! हा! हा! वीर! | यह आपने क्या किया ? मुझ चरण सेवक को दूर भेज कर आप मोक्ष चले गये ! [किमहं हत्थेण गहिय अचिटिस्सं] मैं क्या आपका हाथ पकड़ कर बैठ जाता ? [किं देवाणुप्पियाणं निव्वाणविभागं अपत्थिस्सं] क्या देवानुप्रिय के मोक्ष में हिस्सा बटाने की मांग करता [जे णं में दूरे पेसीअ] जिससे मुझे दूर भेज दिया [जइ दीणसेवगं मं सएण सद्धिं अनइस्सं तो किं मोक्खणयरं संकिण्णं अभविस्सं ?] यदि इस दीन सेवक को भी साथ लेते जाते तो मोक्ष नगर संकडा हो जाता-वहां जगह नहीं मिलती ? [महापुरिसाउ सेवगं विणा खणंपि न चिटुंति] महापुरुष सेवक के बिना क्षणभर भी Til नहीं रहते। [भदंतेण सा नीई कहं विसरिया] आपने यह नीति कैसे भूला दी [इमा
॥७२५॥
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