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________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥७१७॥ [सव्वसिद्धे मुहुत्ते] सर्वार्थसिद्ध नामक मुहूर्त था [साई नक्खत्ते चंदेण सद्धिं जोग- भगवतो निर्वाणमुवागए यावि होत्था] और खाती नक्षत्र का चन्द्रमा के साथ योग था [जं रयणिं च | समयणं समणे भगवं महावीरे कालगए] जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर का निर्वाण चरित्रम् हुआ [तं रयणिं च णं बहुहिं देवेहि देवीहि य ओवयमाणेहि य उप्पयमाणेहि य देवुज्जोए देवसण्णिवाए देवकहकहे उपिंजलगभूए यावि होत्था] उस रात्रि में बहुत से देवों और देवियों के नीचे आने और ऊपर जाने के कारण देव-प्रकाश हुआ, देवों का कल कल हुआ। देवों की बहुत बडी भीड लगी ॥४२॥ भावार्थ-उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीरने अपने निर्वाण के दिन समीप जानकर 'मेरे उपर स्नेह रखनेवाले गौतम को मेरा निर्वाण देखकर केवलज्ञान की प्राप्ति में विघ्न न हो' इस प्रकार विचार कर गौतमखामी को देवशर्मा नामक ब्राह्मण को प्रतिबोध देने के लिये पावापुरी के समीपवर्ती किसी ग्राम में दिनके ॥७१७॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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