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________________ कल्पसूत्रे शब्दार्थे ॥७१६॥ AURAN होकर रहते हैं [कलगए विइक्कते समुज्जाए ] कालधर्स को प्राप्त हुए [छिन्न जाइ जरा - मरणबंधणे सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे ! परिणिबुडे सव्वदुकखप्पहीणे जाए] संसार से निवृत्त हुए, पुनरागमन - रहित उर्ध्वगति कर गये, जन्म जरा और मरण के बन्धन से रहित हो गये । सिद्ध हुए, बुद्ध हुए, मुक्त हुए, परमशांति को प्राप्त हुए, और समस्त दुःखों से रहित हुए । [तेणं कालेणं तेणं समएणं चंदे नामं दोच्चे संवच्छरे] उस काल और उस समय में चन्द्रनाम द्वितीय संवत्सरः था [पीइवद्रणे मासे नंदिवर्द्धणे पक्खे] प्रीतिवर्द्धन मास था, नन्दिवर्द्धन पक्ष था [अग्गिवेस्से उवसमित्ति अवरनामे दिवसे] अग्निवेश्य - जिसका दूसरा नाम उपशम है दिन था [देवानंदा निरतित्ति अवरनामा रयणी] देवानन्दा, अपरनाम निरति नामक रात्रिथी [अच्चे लवे] अर्द्ध नामक लव था [मुहुत्ते पाणू ] मुहूर्त नामक प्राण था [सिद्धे थवे ] सिद्ध नामक स्तोक था [नागे करणे] - नाग नामक करण था '' भगवतो निर्वाण समय चरित्रम् ॥७१६ ॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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