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________________ कल्पसूत्रे शब्दार्थे ॥७१५ ॥ फल-विपाक के और [दस अज्झयणाई पुण्णफलविवागाई कहित्ता ] और सुखविपाक के दस अध्ययन-पुण्य के फल- विपाक के कहकर [छत्तीसं च अपुटुवागरणाई वागरिता एवं छप्पणं अज्झयणाई कहित्ता ] तथा उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययन विना पूछे प्रश्नों का उत्तर देकर - इस प्रकार छप्पन अध्ययन फरमाकर [ पहाणं नाम मरुदेवज्झयणं विभावेमाणे अंतोमुहुत्तासेसे] प्रधान नामक मरुदेव के अध्ययन का प्ररूपण करते हुए अन्तर्मुहूर्त्त आयुशेष रहने पर [जोगे निरंभमाणे ] मन वचन एवं arra योग का निरोध करने पर [ लोउज्जोए सिया] तीनों लोक में प्रकाश हुवा, [पहू सेलेसि पडिवज्जइ] प्रभुने शैलेशी अवस्था प्राप्त की [तया कम्मं खवित्ता: सिद्धि गच्छ] तब आठों कर्म को खपा करके कर्मरजरहित सब कर्मों से मुक्त होकर : को प्राप्त [सिद्धिगइं गमित्ता] सिद्धिगति को प्राप्त करके [लोग मत्थयत्थो ] लोक के अग्रभाग पर स्थित रहते हुए [सिद्धो हवइ सासओ] शाश्वत नित्यपने से सिद्ध 1 भगवतो निर्वाण समय चरित्रम् ॥७१५॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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