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________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थ ॥७०४॥ चन्दनबालादि राजकन्यकानां दीक्षाग्रहणादिकं और प्रभास की भी एकसी वाचना होने से एक गण हुआ। इस प्रकार नौ गण हुए। तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर मध्यम पावापुरी से विहार कर अनेक भव्य जीवोंको प्रतिबोध देते हुए जनपद विहार विचरने लगे। इस प्रकार अनेक देशों में विहार करते हुए भगवान् ने लोगों की अज्ञान रूपी दरिद्रता को दूर करके उन्हें ज्ञानादि की सम्पत्तिसे युक्त किया । जैसे आकाश में प्रकाशमान होता हुआ भानु अन्धकार को दूर करके जगत को हर्षित करता है, उसी प्रकार जगद्भानु भगवान् ने मिथ्यात्वरूपी अन्धकार का निवारण करके ज्ञान के आलोकसे लोकको आह्लादित किया। भवरूपी कूप में पडे हुए भव्यों को ज्ञानरूपी डोरे से बाहर निकाला। भगवान् ने मेघ की भांति अमोघ धर्मोपदेश की अमृतमयी धारा से पृथ्वी को सिंचन किया। इस प्रकार विहार करते हुए भगवान् के इकतालीस चातुर्मास पूर्ण हुए । वे इस प्रकार पहला चातुर्मास अस्थिक ग्राम में (१) एक चम्पानगरी में (२) दो चातुर्मास पृष्ठ चम्पा में (४) वारह ॥७०४।।
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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