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राज
कल्पसूत्रे । तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीरने चंदनबाला को आगे करके वे सभी राजकन्याओं चन्दनः सशब्दार्थे
बालादि को अपने हाथ से दीक्षा प्रदान की, तदनन्तर चंदनबाला आदि आर्यायें संयमवति हुई। ॥७०३॥ यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी बनी। फिर बहुत से उग्रकुल, भोगकुल आदि में जन्मे हुए कन्यकानां
दीक्षानरों तथा नारियोंने पांच अणुव्रत एवं सात शिक्षाव्रतवाले बारह प्रकार के गृहस्थधर्म
ग्रहणादिकं को स्वीकार किया, और उन्होंने श्रावक-श्राविका का पद पाया। तत्पश्चात् श्रमण ७. भगवान् महावीरने तीर्थकर नाम गोत्रका क्षय करने के लिये साधु, साध्वी श्रावक
और श्राविका रूप चतुर्विध संघकी स्थापना करके इन्द्रभूति आदि गणधरों को 'उत्पाद' व्यय और ध्रौव्य, इस प्रकार की त्रिपदी प्रदान की। इस त्रिपदी के आधारसे गणधरों ने द्वादशांग गणिपिटक की रचना की । ग्यारह गणधरों के नौ गण हए । वे इस प्रकारसात गणधरोंकी भिन्न भिन्न बाचनाएं होने से सात गण हुए । अकम्पित और अचल भ्राता दोनों की परस्पर समान वाचना होने से एक गण हुआ। इसी प्रकार मेतार्य
॥७.३॥