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________________ ROIN दीक्षाग्रहणादिकं कल्पसूत्रे ठाविय] साधु साध्वी श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघकी स्थापना करके [इंद- चन्दन Is बालादि सशब्दार्ये भूहप्पभिईणं गणहराणं-'उप्पन्ने वा विगमे वा धुवे वा' इय तिवई दलइ] इन्द्रभूति राज॥६९८॥ आदि गणधरों को उत्पाद व्यय औ ध्रौव्य इस प्रकारकी त्रिपदा प्रदान की। [एयाए कन्यकानां तिवईए गणहरा दुवालसंगं गणिपिडगं विरइयंति] इस त्रिपदी के आधार से गणधरोंने द्वादशांग गणिपिटक की रचना की। [एवं एगारसण्हं गणहराणं नव गणा जाया] इस प्रकार ग्यारह गणधरोंके नौ गण हुए [तं जहा-सत्तण्हं गणहराणं परोप्परभिन्न वायणाए सत्त गणा जाया] वे इस प्रकार-सात गणधरों की भिन्न भिन्न वाचनाएँ होने से सात गण हुए। [अकंपियायलभायाणं दुण्हंपि परोप्परं समाणवायणयाए एगो गणो जाओ] अकम्पित और अचलभ्राता दोनों की परस्पर समान वाचना होनेसे एक गण हुआ [एवं मेयज्जपभासाणं दुण्हंपि एगवायणयाए एगो गणो जाओ] इस प्रकार मेतार्य और प्रभास दोनों की भी एक सी वाचना होने से एक गण हुआ। ॥६९८॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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