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सामाचारी वर्णनम्
कल्पसूत्रे ।। तीसरी पौरुषी में निद्रालेवे और चौथी पौरूषी में फिर स्वाध्याय करे ॥४॥ सशब्दार्थे ॥६८७॥
मूलम्-पोरिसीए चउत्थीए, कालं तु पडिलेहए।
सज्झायं तु तओ कुज्जा, अबोहिंतो असंजए ॥४५॥ भावार्थ-रात्रिकी चतुर्थ पौरूषी मेंमुनि वैरात्रिक कालकी प्रतिलेखना करके गृहस्थजन जग न जावें इस रूपसे अर्थात् मंद स्वरसे स्वाध्याय करे ॥४५॥ मूलम्-पोरिसीए चउब्भागे, वंदित्ताणं तओ गुरुं ।
पडिक्कमित्ता कालस्स, कालं तु पडिलेहए ॥४॥ भावार्थ-स्वाध्याय करनेके बाद चतुर्थ पौरूषीका चतुर्थभाग बाकी रहे तब गुरु को वंदन करके 'अकाल' आ गया है, ऐसा समझकर प्रभातिक कालकी प्रतिलेखना करे अर्थात् राइसी प्रतिक्रमण करे ॥४६॥
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ॐ॥६८७॥