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सामाचारी
कल्पसूत्रे सशब्दार्थ ॥६७७॥
:: वर्णनम्
: मूलम्-उटुं थिरं अतुरियं, पुव्वं ता वत्थमेव पडिलेहे ।
तो बिइयं पप्फोडे, तइयं च पुणो पमज्जिज्ज ॥२४॥ भावार्थ-उत्कुटुक आसन से बैठकर मुनि वस्त्रको तिरछा फैलाकर स्थिरता से वस्त्रों की प्रतिलेखना करे । यदि जीव जंतु उसपर चलता, फिरता तथा बैठा नजर आवे तो उसको यतनापूर्वक सुरक्षित स्थान पर पूंजणी से पूंजे और रख देवें, झटकारे नहीं ॥२४॥ मूलम्-अणच्चावियं अवलियं, अणाणुबंधि अमोसलिं चेव।
छप्पुरिमा नवखोडा, पाणीपाणी विसोहणं ॥२५॥ भावार्थ-प्रतिलेखन करते समय वस्त्रको नचावे नहीं, मोडे नहीं, वस्त्रका विभाग स्पष्ट दिखाई दे, भीत आदिका संघाटा न होवे इस प्रकार प्रतिलेखन करें। यतनापूर्वक छ बार वस्त्रका प्रतिलेखन करे प्रस्फोटन करे और नौ वार प्रमार्जना करे। उसके
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॥६७७॥