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कल्पसूत्रे सशब्दार्थ ॥५७||
शक्रेन्द्रऋततीर्थकरजन्ममहोत्सवः
करयल जाव एवं वयासी णमुत्थु ते रयणकुच्छिधारिए एवं जहा दिसाकुमारीओ जाव धण्णासि पुण्णासि तं कयत्थासि अहण्णं देवाणुप्पिए ! सक्के णाम देविंदे देवराया भगवओ तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामि तण्णं तुब्भेहिं णो भीइयव्वं तिकटु उवसोवणिं दलयई २ त्ता तित्थयर पडिरूवगं विउव्वइ २ त्ता तित्थयरमाऊए पासे ठवेइ २त्ता पंच सक्के विउव्वइ २ त्ता एगे सक्के भयवं तित्थयरं करयलसंपुडेणं गिण्हइ, एक्के सक्के पिट्ठओ आयवत्तं धरेइ दुव्वे सक्का उभओ पासिं चामरक्खेवं करेंति एगे सक्के पुरओ वज्जपाणी पवुठुइ ॥१४॥
भावार्थ-तत्पश्चात् वह शक देवेन्द्र चौरासी हजार सामानीक सहित यावत् परवरा AN हुआ सब ऋद्धि यावत् दुंदुभि बजाता हुआ जहां भगवान् तीर्थकर व उनकी माता
होती है वहां आता है उनको देखते ही प्रणाम कर तीन वार आदक्षिण प्रदक्षिणा करके | दोनों हाथ जोडकर ऐसा कहता है कि अहो रत्न कुक्षिको धारन करनेवाली तुमको
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