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कल्पसूत्रे शब्दा
॥६७३॥
मूलम् - जेट्ठा मूले आसाढ - सावणे, छहिं अंगुलेहिं पडिलेहा ।
अट्ठहिं बिइतियम्मि, तइए दस अट्ठहिं चउत्थे ॥१६॥ भावार्थ- जेष्ठ महिने में, आषाढ सावन में पहिले लिखे हुये पौरूषी प्रमाण में छह अंगों के प्रक्षिप्त करने से निरीक्षण रूप प्रतिलेखना करनी चाहिये । इससे पादोन पौरूषी का ज्ञान होता है । भाद्र, आश्विन, कार्तिक महीनों में आठ अंगुलों को क्षिप्त करके, मगसिर, पौष एवं माघ मास में दश अंगुलों को प्रक्षिप्त करके फाल्गुन, चैत्र एवं वैसाख मास में आठ अंगुलों को प्रक्षिप्त करके प्रतिलेखना करनी चाहिये ||१६| मूलम् - रतिंपि चउरो भाए, भिक्खू कुज्जा वियक्खणो ।
तओ उत्तरगुणे, कुज्जा, राई भागेसु चउसु वि ॥१७॥
भावार्थ - बुद्धिशाली मुनि रात्री के भी चार भाग कर लेवे और उन रात्रि के चार भागों में भी वह स्वध्याय आदिरूप उत्तर गुणों की आराधना करे ॥१७॥
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सामाचारी वर्णनम
॥६७३॥