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कल्पसूत्रे
सशब्दार्थ ॥६६॥
भगवच्छा
सनावध्य शादि कथन
लिये अथवा परीषह रोकने के लिये३, वस्त्र रखना कल्पता है ॥३८॥
मूलम्-कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तओ पायाइं धरित्तए वा परिहरित्तए वा, तं जहा-लाउयपाए वा दारुपाए वा मिट्टियापाए वा ॥३९॥
शब्दार्थ--[कप्पइ] कल्पता है [णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा] निग्रंथों को अथवा निग्रंथियों को [तओ] तीन प्रकार के [पायाइं] पात्रा को [धरित्तए वा] धारण करने को al अथवा [परिहरित्तए वा] उपभोग करने का कल्पता है, वे इस प्रकार है-[लाउयपाए वा] तुंबे का पात्र १ [दारुपाए वा]२ लकडी का बना पात्र अथवा [मट्टियापाए वा] मृत्तिका के पात्र ॥३९॥
भावार्थ-निर्ग्रन्थों को एवं निर्ग्रन्थीयों को तुबे के पात्र १ लकडी का बनापात्र २, अथवा मिट्टि का बना पात्र ये तीन प्रकार के पात्रों को धारण करना या उपभोग में लेने को कल्पता है ॥३९॥