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कल्पसूत्रे
दा ॥६४५॥
शब्दार्थ -- [जं पि] जो साधु [वत्थं] वस्त्र [व] अथवा [पायं] पात्र [ar] अथवा [कंवलं] कम्बल [पायपुंछणं] पैर पूंछने वाला बस्त्र विशेष तथा रजोहरण रखते हैं । [प] तथापि वह [संजमलज्जहा] संयम की लज्जा की रक्षा के लिये ही [धारंति ] धारण करते हैं [य] और [परिहरंति] अपने काम में लाते हैं ॥३१॥
भावार्थ-- मुनिराज, जो कल्पनीय डोरासहित मुखवस्त्रिका, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पैर पूंछनेवाला कपडा तथा रजोहरण आदि जरूरी वस्तुएँ रखते हैं वह संयम की और लज्जा की रक्षा के वास्ते ही वर्तते हैं ॥३१॥
मूलम् - सव्वत्थु बहिणा बुद्धा, संरक्खणपरिग्गहे । अवि अप्पणो विदेहंमि, नायरंति ममाइयं ॥३२॥
शब्दार्थ-- [बुद्धा] तत्र के जानकार [सव्वत्थु ] सब प्रकार की उपधि, वस्त्र, पात्र, रजोहरण, मुखवस्त्रिका द्वारा [ संरक्खणपरिग्गहे ] जीव रक्षा के वास्ते जो उपकरण
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उपध्यादौ ममता परिहारः
॥६४५॥