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________________ कल्पसूत्रे स्वलिंगायुपधिसंपादनविधिः सशब्दार्थे ॥६४३॥ [सयमेवं वि करेह] खुद भी ले आवे और [अन्नेण वि करावेह] दूसरों के द्वारा लाया हुआ ग्रहण करे, [जं भवइ] जिस प्रकार योग्य हो वैसा करे, [गहण] गहन [अडवियंसि वा] अटवी में [तस्स णं] उसको [गाढागाढे कारणेहिं देवा वि दलयंति] गाढागाढ कारण से देव भी लाकर देते हैं [अणाईकालेणं] अनादि काल से [जीयाच्चार] जीताचार [निच्चमेवं भवइ] सदा इस प्रकार होता रहा है [देवाणं] देवों की [अयंभावणा वि भवइ] इस प्रकार की भावना होती है [सलिंगोकारण] स्वलिंग का कारण [भंडमाइयाइं] वस्त्र पात्रादिक [उवहि वि] उपधी भी [दलयंति] देते हैं [दढभावेणं जं भवंति जीवा] दृढ भावना वाले जो जीव होते हैं [तस्स णं देवा दलयंति] उसको देवता भी देते हैं [णो अन्नं दलयंति] दूसरे को नहीं देती हैं [गोयमा] हे गौतम ! [केवलीणं सव्वठाणे देवा दलयंति] केवली को सर्वस्थान में देवता ही लाकर देते हैं [जहा भरहे राया सेत्तं] जैसे भरत राजा को उसी प्रकार [साहू] साधु की [पवज्जा सामग्गियं] दीक्षा सामग्री ॥३०॥ ॥६४३॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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