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कल्पसूत्रे सशब्दार्थे
पधिसंपा
स्वलिंगायुदनविधिः
॥६४२॥
_मूलम्-सलिंगोवगरण उवही भंडमत्ताई केवामेव भवंति ? गोयमा! गाम- सि वा णगरंसि वा जाव रायहाणिसि वा सयमेव वि करेह अन्नण वि करावेह जं भवइ गहणं अडवियंसि वा तस्स णं गाढागाढे कारणेहिं देवा वि दलयंति, अणाई कालेणं जीयाच्चार निच्चमेवं भवइ, देवाणं अयं भावणा वि भवइ सलिंगो कारण भंडमाइयाइं उवहि वि दलयंति दढभावेणं जं भवंति जीवा तस्स णं देवा दलयंति, णो अन्नं दलयंति, गोयमा ! केवलीणं सव्वठाणे देवा दलयंति, जहा भरहे राया से तं, साहू पवज्जा सामग्गियं ॥३०॥
शब्दार्थ--[सलिंग] स्वलिंग [उवगरण] उपकरण [उवही] उपधी [भंडमत्ताई] वस्त्र पात्रादि [केवामेव भवंति] किसी प्रकार प्राप्त करे [गोयमा] हे गौतम! [गामंसि वा] गांव से [णगरंसि वा] नगर से [जाव] यावत् [रायहाणिसि वा] राजधानी से
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| ॥६४२॥