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________________ 'कल्पसत्रे सशब्दार्थे ॥६४१॥ मुखवस्त्रिकायाः आवश्यक खम् l आदि एवं देशना-चोलते समय मुख में से नीकलते उष्ण वायु द्वारा मरते (बादर) वायुकायिक जीवों की रक्षा कैसे होसके ? एवं अन्य मनुष्य के ऊपर उडते थूकके बिंदुओं का स्पर्श की रूकावट कैसे होसकती रजोहरण एवं गोच्छा के विना मकान एवं पात्रा कैसे पुंजसके ? अतः रजोहरण एवं मुखवस्त्रिका अवश्य रखने चाहिए ॥२८॥ ... मूलम्-एवामेव भंते ! पवयणकुसला, सयमेव वि पवज्जा गिण्हेज्जा ? | हंता गोयमा ! ॥२९॥ शब्दार्थ--[एवामेव भंते] इस प्रकार हे भगवन् ! [पवयणकुसला] प्रवचन में | कुशल [सयमेव वि] स्वयमेव भी [पवज्जा गिण्हेज्जा] दीक्षा ग्रहण कर सकता है ? | [हता. गोयमा !] हां गौतम ! कर सकता है ॥२९॥ भावार्थ--इस प्रकार प्रवचन में कुशल जैन तत्व के निपुण खुद भी दीक्षा ग्रहण कर सकता है ? हां गौतम ! कर सकता है ॥२९॥ ॥६४१॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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