SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 653
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्पसूत्रे निर्ग्रन्थियों को [सलिंगे] स्वलिङ्ग से [सया] सर्वदा [वट्टित्तए] रहना, [साहवेसेणं कर- ... निर्ग्रन्थासशन्दायें दिनां वेष| माणे भंते ! जीवे किं जणयइ] साधुवेष में रहता हुआ हे भदन्त ! जीव क्या उत्पन्न करता धारणम् ॥६३७॥ IT है [गोयमा !] हे गौतम ! [लाघवं जणयइ] निरहंकारपना को उत्पन्न करता है [अहवा] अथवा [भावेवं गाणं जाव तवं जणयइ] भाव से ज्ञान. यावत् तप को उत्पन्न करता है ।। [एवामेव] इस रीति से भी [भंते!] हे भदन्त ! [जे अईया] जो भूतकाल के [जे पडुपन्ना] जो वर्तमानकाल के [जे आगमिस्सा] जो भविष्यत् काल के [अरिहंता भगवंता] अरिIn हंत भगवन्त [किं ते सया सलिंगे वदृइस्संति ?] क्या वह सर्वदा स्वलिङ्ग-साधुवेष में रहेंगे ? [हंता गोयमा !] हां गौतम [सव्वे वि अरिहंता एवं सलिंगे पवहिस्संति] सब . अरिहंत इसी प्रकार स्वलिंग से रहते हैं ॥२६॥ भावार्थ-निर्ग्रन्थ और निर्गन्थियों को अन्य वेष में अथवा गृहस्थ वेष में अथवा कुवेष में रहना नहीं कल्पता है, निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को स्वलिंग साधुवेष में सदा ॥६३७॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy