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कल्पसूत्रे सशब्दार्थे
॥६३८॥
रहना कल्पता है, साधु वेष में रहता हुआ हे भदन्त ! जीव क्या उत्पन्न करता है ? हे गौतम ! निरभिमानपना उत्पन्न करता है, अथवा भाव से ज्ञान यावत् तप को उत्पन्न करता है, इसी प्रकार से हे भदन्त ! जो भूतकाल के, जो वर्तमानकाल के, जो भवियत् काल के अरिहंत भगवन्त हैं क्या वे सर्वदा स्वलिङ्ग - साधु वेष में रहते हैं, हां गौतम सब अरिहंत इसी प्रकार स्वलिङ्ग से रहते हैं ||२६||
मूलम् - रयहरणं निसीहिया सहियं धरंति, सदोरकमुहपत्तिं मुहोवरिबंधणं, गोच्छगं, पडिग्गहं पडिधरंति, पाउहरणं सरीररक्खणट्टं, चोलपट्टगं पडिधारणं, नाणदंसणं-चरित्तआराहगा सलिंगीणो हवंति । गिहत्था, पडिमाधारगा, निसीहिया वज्जियं रयोहरणधारगा गिहिलिंगिणो हवंति । वोहधम्मिणो तहा बाबा जोगिणो तहा पंचग्गी तावगा अण्णलिंगिणो हवंति, अवसरीरं वत्थेण आव
निर्ग्रन्थादिनां वेप
धारणम्
॥६३८॥