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________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थ ॥६२५॥ वादरवायुकायानां नामकारणम् । ... शब्दार्थ--[से] तो [केणटेणं] किस कारण से [भंते] हे भगवन् [बायरवाउजीव- कायाणं] बादरवायुकाय के जीवों का [सुहुमं णामधिज्जा] सूक्ष्म ऐसा नाम कहा है ? [गोयमा !] हे गौतम ! [अदिस्सति मंसचक्खुणा] चर्मचक्षु से दृश्यमान नहीं होते हैं ? [तेणट्रेणं] इस कारण से [गोयमा] हे गौतम ! [सुहुमंति] सूक्ष्म ऐसा [णामधेज्जा] नाम कहा है [सलिंगस्स णं] मुनिवेष के लिए [मुहपत्तिमाइयाइं] मुखवस्त्रिका आदि [नामधिज्जाइं] नाम कहा है। [मुहपत्तिं] मुखवस्त्रिका [मुहे बंधेइ] मुख पर बांधते हैं [वाउजीवस्स] वाउकाय के जीवों की [रक्खणटुं] रक्षा के लिये [तस्सटें] इस कारण से [मुहपत्ति] मुहपत्ती को [अरिहंता] अरिहंतोने [सलिंग] स्वलिंग साघु-चिह्न [भासंति] कहा है। [मुहपत्ति] मुखवस्त्रिका [सलिंग] स्वलिंग और [विणयमूलधम्म] विनय मूलधर्म रूप है [एवं] इसलिए [मुहेण सद्धिं] मुख के साथ [बंधित्ता] बांधकर [तओ पच्छा] तदनन्तर [रयहरणं] रजोहरण [पायकेसरियं] पादकेसरिका-गुच्छे को [कक्खेणं] कांख SKCE जा ॥६२५||
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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