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कल्पसूत्रे
सशब्दार्थे ॥६२१॥
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प्रवजनादि | [मुहपत्ती] मुहवस्त्रिका [वाउजीवरक्खणटाए] वायुकाय के जीव के रक्षण के लिए [ते]
विधि - वे [किं] क्या [सुहुमवाउकायरक्खणटाए] सूक्ष्मवायुकायके जीवों के रक्षण के लिए है
निरूपणम् [व] अथवा [बायरवाउकायजीवरक्खणदाए] बादरवायुकाय के जीवों की रक्षा के लिये है ? [गोयमा !] हे गौतम ! [णो णं सहुमवाउकाय-जीव-रक्खणट्टाए] सूक्ष्मवायुकायके जीवों की रक्षा के लिये नहीं परन्तु वायरवाउकायजीवरक्खणटाए] बादरवायुकाय | जीवों की रक्षा के लिये है [तेणं] ऐसा करने से [छक्कायजीवरक्खणं भवइ] षट्काय के जीवोंका रक्षण होता है [एवं] इस प्रकार [ते] वे [सव्व] सभी [अरिहंता] अर्हन्त भगवन्त [पवुच्चंति] कहते हैं।
भावार्थ हे भगवन् प्रवाजनाचार्य किस प्रकारसे प्रवजित करते हैं ? [दीक्षा देते हैं ?] हे गौतम! शोभनीय तिथि करण दिवस नक्षत्र मूहुर्तके योग में प्रव्राजनाचार्य | प्रवजित करते हैं। अर्थात् दीक्षा देते हैं। अब में दीक्षा देनेकी विधि कहता हूं
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