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कल्पसूत्रे पन्नर एवी कर्मभूमि विषे [जावंति केई साहु] जेटला कोईक साधु छे [रयहरण गुच्छ] पापपरि- सशब्दार्थे
हारपूर्वक रजोहरण गुच्छग [पडिग्गहधारा] पात्र विगेरेना धारणहार [पंच महव्वयधारा] पांच
धर्म॥६१२॥
महाव्रतना धारणहार [अट्ठारस सहस्स] अढार सहस्र (हजार) [सीलांगरहधारा] स्वीकारः All शीलांग रूपी रथना धरणहार [अख्ख आयारचरित्ता] अखंडित आचाररूप चारित्र तेना
धारणहार [ते सव्वे, सिस्सा] ते सर्वने उत्तमांगे करी [मणसा, मथ्थएण वंदामि] अंतः
करणे करी मस्तके करीने वांदु छु [खामेमी सव्वजीवे] खमा छु सर्व जीवोने [सव्वे ॥ | जीवा खमंतुमे] सर्व जीवो खमो मुझने (मारा अपराधने) [मित्ती मे सव्वभूएसु] मैत्री
भाव छे मारे भूतने विषे [वेरं मज्झं न केणई] वैरभाव मारे कोई पण साथे नथी [एव महं अलोइय] ए प्रकारे हु अलोचित्त (आलोचनायुक्त) [निंदिय] निंदित [गरहिय] गर्हित [दुर्गछिय] दुगंच्छना युक्त एवो [सम्म, तिविहेणं] साचा दिलथी त्रिविधिये [पडिक्कतो, वंदामि जीणे चउविसं] वंदु छु (स्तवं छु) चतुर्विश (चौवीश) जिनोने ॥२२॥ ॥६१२॥