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________________ कल्पसूत्रे सशन्दाथे पापपरिहारपूर्वक धर्म ॥६१३॥ स्वीकार | भावार्थ-श्रीऋषभदेव स्वामी से लेकर महावीर स्वामी पर्यन्त चौवीसों तीर्थकर भगवान को मेरा नमस्कार हो । इस प्रकार नमस्कार करके तीर्थकर प्रणीत प्रवचन की स्तुति करते हैं-यही निर्ग्रन्थ-अर्थात् स्वर्ण रजत आदि द्रव्यरूप और मिथ्यात्व आधि भावरूप ग्रन्थ (गांठ) से रहित मुनिसम्बन्धी सामायिक आदि प्रत्याख्यान-पर्यन्त द्वादशाङ्ग गणिपिटकस्वरूप तीर्थङ्करों से उपदिष्ट प्रवचन, सत्य, सर्वोतम, अद्वितीय, समस्त गुणोंसे परिपूर्ण, मोक्षमार्ग, प्रदर्शक अग्नि में तपाये हुए सोने के समान निर्मल [कषाय मल से रहित] मायादि शल्यका नाशक, अविचल सुख का साधनमार्ग कर्म| नाशका मार्ग, आत्मा से कर्म को दूर करनेका मार्ग, शीतलीभूत होनेका मार्ग, अवितथ अर्थात् तीनों काल में भी अविनाशी, महाविदेह क्षेत्रकी अपेक्षा सदा और भरतक्षेत्र mil आदि की अपेक्षा इक्कीस हजार वर्ष रहनेवाला और सब दुःखोंका नाश करनेवाला मार्ग है। इस मार्ग में रहे हुए प्राणी-सिद्धगति से, अथवा अणिमा आदि आठ सिद्धियों से M ॥६१३॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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