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कल्पसूत्रे पशब्दार्थे ॥६११॥
पापपरिहारपूर्वक धर्मस्वीकारः
(इश्वर प्ररूपित भावने) अंगीकार करुं छं [अकिरियं] मिथ्याक्रियाने [परियाणामि] ज्ञप्रज्ञाए जाणी पचखु छ; [मग्गं] ज्ञान, दर्शन, चरित्र तप छे जेमां एवा सम्यक् मार्गने [उवसंपज्जामि] अंगीकार करूं छं [जं संभरामि] जे दोषने संभारूं छं (याद करुं छ) ते [जं च न संभरामि] वळी जे दोष सांभरता (याद आवता) नथी ते [जं पडिकमामि] जे दोषने आलोचुं [जं च न पडिकमामि] जे दोष नथी आलोचतो याद नहीं आववाथी [तस्स सव्वस्स] ते सर्व [देवसियस्स] दिवस संबन्धी [अईयारस्स] अतिचारने [पडिक्क मामि] निवारूं छं [समणोहं] श्रमण (तपस्वी) हुँ [संजय] संयत (समस्त प्रकार प्राप्त थयेल ; [विरय] संसारथी विराम पामेल छं [पडिहय] समीप आवतां हण्यां छे [पच्चख्खाय] प्रत्याख्याने करी [पावकमे] पापकर्मने एवो छ [अनिआणो] निदानरहित छ, [दिट्ठी संपन्नो] सम्यक् दृष्टि संपन्न छु, [माया मोस विवज्जिओ] माया मृषा तेथी रहित छ; [अड्डाईसु] अढी [दीव समुद्देसु] द्विप समुद्रने विषे [पन्नरससु कम्मभूमिसु]
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