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कल्पसूत्रे
सभन्दाथै ॥६०४॥
स्वरूप है । 'अग्निहोत्र जरा मरण का कारण है, इस कथन से यह सिद्ध नहीं होता {1} मेतार्य
प्रभासयोः कि जीव के जरा-मरण का अभाव हो ही नहीं सकता । इस वाक्य में तो यह प्रतिपा
शङ्का- . दित किया गया है कि अग्निहोत्र जरा मरण के अन्तका कारण नहीं, प्रत्युत जरा-मरण निवारणम्
प्रव्रजनं च | का कारण है। इसमें ध्यान, अध्ययन, तपश्चरण आदि कारणों से होने वाले जरा-मरण | के अभाव रूप मोक्षका निषेध नहीं किया गया है। अग्निहोत्र आरंभ-समारंभ एवं हिंसा जनित तथा स्वर्ग और वैभव आदि की कामना से प्रेरित अनुष्ठान है, अत एव । उसे जरा-मरण का जो कारण कहा है सो उचित ही है। मोक्ष सम्यग्ज्ञान और सम्यकू चरित्र से होता है, उसका निषेध उक्त वाक्य में नहीं है। मैं ही ऐसा कहता हूं, सो : नहीं, तुम्हारे शास्त्र में भी कहा है-ब्रह्म के दो भेद हैं-पर और अपर । इन दोनों में से जो ब्रह्म है, वह सत्य, ज्ञान एव अनन्त स्वरूप है। वेद में भी कहा है-सत्यं ज्ञानमनन्तं । ब्रह्म । अगर जीव को मोक्ष न होता तो उसे सत्य, ज्ञान एवं अनन्त स्वरूप की प्राप्ति ...
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