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कल्पसूत्रे सशब्दार्थे
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का अग्निहोत्र है, वह सभी जरा और मरणका कारण है। इस वेदवाक्य से तो यही froad freeता है कि जीव के संसारका अभाव हो ही नहीं सकता। अगर दीपशिखा के नष्ट हो जाने के समान निर्वाण मोक्ष माना जाय तो जीवके सर्वथा अभाव की अनिष्टापत्ति होती है। निर्वाण के विषय में तुम्हें यह संशय है । यह संशय मिथ्याज्ञान से उत्पन्न हुआ है । क्योंकि निर्वाण और मोक्ष, दोनों एकार्थवाचक शब्द है । मोक्ष बद्ध का ही होता है । जीव अनादि कालसे ज्ञानावरणीय आदि कर्मों से बद्ध है, अतः विशेष प्रयत्न करने से उसका मोक्ष होता ही है । इस विषय में मण्डिकके प्रश्न में जो कहा है, वह सब यहां भी समझ लेना चाहिये । अभिप्राय यह है कि ज्ञानावरआदि कर्मों से जब आत्मा मुक्त हो जाता है तो उसमें औपाधिक भाव कर्म जति विकार भी नहीं रहते। उस समय आत्मा अपने वास्तविक शुद्ध चैतन्यस्वरूप को प्राप्त कर लेता है । जरा और मरण से सर्वथा रहित हो जाता है । यही मोक्षका
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| मेतार्य
प्रभासयोः
शङ्कानिवारणम्
प्रव्रजनं च
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