SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 618
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥६०२॥ मेतार्यप्रभासयोः शङ्कानिवारणम् प्रव्रजनं च हुए उन्हीं भावों से भावित-वासित होकर उसी-उसी भावको प्राप्त करता है। इत्यादि अत एव परलोकको स्वीकार करना चाहिये । इस प्रकार सुनकर और विशेष रूपसे अन्तःकरणमें धारण करके मेतार्य भी छिन्न संशय होकर तीनसौ शिष्यों के साथ दीक्षित हो गये। मेतार्य को दीक्षित हुआ सुनकर ग्यारहवें प्रभास नामक पंडित भी तीनसौ अन्तेवासियों सहित अपने संशय को दूर करने के लिये श्रीमहावीर स्वामीके समीप पहुंचे। भगवान् प्रभास से बोले-हे प्रभास ! तुम्हारे मनमें यह संशय है कि निर्वाण है अथवा नहीं ? अगर निर्वाय है तो क्या वह संसार का अभाव ही है, अर्थात् चार गतियों में भ्रमण रूप संसारका रुक जाना शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थित हो जाना ही है ? अथवा दीपक की शिखा के नाश के समान जीव का सर्वथा अभाव हो जाना ही निर्वाण है ? इन दोनों पक्षों में से यदि संसारका अभाव निर्वाण है, यह पहला पक्ष माना जाय तो वह वेद से विरुद्ध है, क्योंकि वेदों में कहा है कि-'यह जो नाना प्रकार ॥६०२॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy