SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 614
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ INDI - कल्पसूत्रे । भावो पसज्जइत्ति] यदि दीपक की लौ के समान जीवका नाश होना निर्वाण माना जाय It मेतार्य प्रभासयोः सशब्दार्थे . तो जीव के अभावका प्रसंग आता है । [तं मिच्छा] हे प्रभास ! तुम्हारी यह मान्यता. शङ्का॥५९८॥ मिथ्या है [निव्वाणंति मोक्खो त्ति वा एगट्ठा ! मोक्खो उ बद्धस्सेव हवइ] निर्वाण और निवारणम् प्रव्रजनं च मोक्ष दोनों एक ही अर्थ को बतलानेवाले शब्द है । बद्ध जीव काही मोक्ष होता है [जीवो हि कम्मेहिं बद्धो अओ तस्स पययणविसेसाओ मोक्खो भवइ चेव] जीव कर्मो से बद्ध है, अतः प्रयत्न विशेष से उसका मोक्ष होता ही है [अस्स विसये मंडियपण्हे सव्वं कहियं तं धारेयव्यं] मोक्ष के विषय में मण्डिक के प्रश्न में कहा है वह सब समझ लेना चाहिये [तव सत्थेवि वुत्तं-द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये परमपरं च । तत्र परं 'सत्यं ज्ञान मनंतं ब्रह्मे' ति] तुम्हारे शास्त्र में भी कहा है-'दो प्रकार के ह्म सत्य; ज्ञान और अनंत स्वरूप है । [अणेण मोक्खस्स सत्ता सिज्झइ] इससे मोक्षकी सत्ता सिद्ध होती है। [अओ सिद्धं मोक्खो अस्थि त्ति] अतः मोक्षका सद्भाव सिद्ध हुआ [एवं सोचा ॥५९८॥ HSSC SICS
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy