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________________ कल्पसूत्रे (मेतार्य प्रभासयोः सशब्दार्थे ॥५९७॥ निवारणम् प्रव्रजनं च । पण्डित प्रभास भी तीनसौ शिष्यों के साथ अपना संशय दूर करने के लिए प्रभु के पास पहुंचे [पहुणा य सो आभट्ठो-] प्रभुने उससे कहा-[भो पभासा! तव मणंसि इमो संसओ वट्टइ-] हे प्रभास! तेरे मन में यह संशय है कि [जं निव्वाणं अस्थि नाथ वा?] निर्वाण है या नहीं ? [जइ अस्थि किं संसाराभावो चेव निव्वाणं ? अहवा दीवसिहाए विव | जीवस्स नासो निव्वाणं ?] यदि है तो क्या संसार का अभाव ही निर्वाण है ? अथवा दीपक की शिखा के समान जीवका नाश हो जाना निर्वाण है ? [जइ संसाराभावो | निव्वाणं मन्निज्जइ ताहे तं वेयविरुद्धं भवइ] यदि संसार के अभाव को निर्वाण माना जाय तो यह मान्यता वेद विरुद्ध है। [वेएसु कहियं-'जरामयं वै तत्सर्वं यदाग्निहोत्रम् इति' अणेण जीवस्स संसाराभावो न भवइति] वेदों में कहा है 'यह जो अग्निहोत्र है सो सब जरा मरण के लिये है। इससे प्रतीत होता है कि जीव के संसारका अभाव नहीं होता। [जइ दीवसिहाए विव जीवस्स नासो निव्वाणं मन्निज्जइ, ताहे जीवा ॥५९ १७॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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