SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 612
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शङ्का ARNESSIP कल्पसूत्रे 10 कहं भवे ?] परलोक-पुनर्जन्म है ही अन्यथा तत्काल उत्पन्न बालकका माता के स्तन मेतार्य प्रभासयोः सशन्दार्थे | का दूध पीनेकी इच्छा [या बुद्धि] कैसे होती ? [तव सिद्धंते वि वुत्तं-यं यं वाऽपि स्मरन् । ॥५९६॥ | भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् । तुम्हारे सिद्धान्त में भी कहा है कि-'हे अर्जुन ! जीव निवारणम् प्रव्रजनं च अन्तिम समय में जिन जिन भावोंका स्मरण-चिंतन करता हुआ शरीर छोडता है [तं तमेवति कौन्तेय, सदा तद्भावभावितः] उन उन भावों से भावित वह जीव उसी । उसी भाव को प्राप्त होता है । [अओ सिद्धं परलोगो अत्थित्ति] अतः सिद्ध है कि पर लोक संज्ञा हैं [एवं सोच्चा निसम्म छिन्नसंसओ मेयज्जोवि तिसयसीसेहिं पव्वइओ] इस कथन को सुनकर और उसे हृदय में धारण कर और संशय रहित हो वह अपने तीनसो शिष्यों के साथ भगवान के समीप प्रवजित हो गया। [तं पव्वइयं सोचा एगारसमो पंडिओ पभासाभिहो वि तिसयसीससहिओ नियसंसयावणयणत्थं पहुसमीवे समणुपत्तो] मेतार्य को दीक्षित हुआ सुनकर ग्यारहवें ॥५९६॥ wwsum
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy