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________________ अकम्पितादीनां शङ्कानिवारणम् प्रव्रजनं च . कल्पसूत्रे । मन्दता दुःख को उत्पन्न नहीं कर सकती । 'यह सब पुरुष ही है, इत्यादि वाक्यके सभन्दाथै विषयमें जो तुम्हें सन्देह है, उसका समाधान अग्निभूति के प्रश्न में जो समाधान ॥५९१॥ मैंने किया है, वही यहां भी समझ लेना । इसके अतिरिक्त तुम्हारे आगम में भी पुण्य | और पाप दोनोंको स्वतंत्र स्वीकार किया गया है कहा है-'पुण्यः पुण्येन कर्मणा पापः, पापेन कर्मणा' अर्थात्-जीव शुभ कर्म से पुण्यवान् होता है और अशुभ कर्मसे पापवान् होता है। ऐसा मानने पर इस वाक्य का अर्थ यह होगा-'शुभ कर्म से पुण्य और अशुभ कर्मसे पाप होता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि पुण्य और पाप दोनों स्वतंत्र | वस्तुएं है । आशय यह है कि आहेत मत में कोई भी दो पदार्थ सर्वथा भिन्न या सर्वथा अभिन्न नहीं होते, तथापि अचल भ्राता के माने हुए सर्वथा अभेदपक्षका निरास करने के लिये यहां केवल भेद-पक्षका समर्थन किया गया है । द्रव्यकी अपेक्षा दोनों में अभेद भी है, अनेकान्तवाद के ज्ञाताओं को यह समझना कठिक नहीं। भगवान् । | ॥५९१॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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