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कल्पसूत्रे , पाप आदि कोई पदार्थ नहीं है । तुम्हारे मनमें ऐसा संशय है, किन्तु यह मिथ्या है। इस अकम्पिता
दिनां शङ्कासशब्दार्थ । संसार में पुण्य और पापका फल प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है । व्यवहार से भी प्रतीत
2 निवारणम् ॥५९०॥
र होता है कि पुण्य का फल दीर्घ जीवन, लक्ष्मी, रमणीय स्वरूप, नीरोगता और सत्कुल प्रव्रजनं च ... में जन्म आदि है, और पापका फल इनसे उलटा-अल्पायु, दरिद्रता, कुरूपता, रुग्णता 1 और असत्कुल में जन्म आदि है। इस प्रकार पुण्य और पाप पर्याय की अपेक्षा
स्वतंत्र परस्पर निरपेक्ष, पृथक् पृथक् है । यही मानना चाहिये । तथा कारण में भेद न हो तो कार्य में भेद नहीं हो सकता। सुख और दुःख परस्पर विरुद्ध दो कार्य हैं, अतः उनका कारण भी परस्पर विरुद्ध और अलग अलग होना चाहिये। पुण्य-पापको । ! अभिन्न मानोगे तो उससे सुख-दुःख रूप दो कार्य नहीं होंगे, अथवा सुख-दुःख को
भी अभिन्न ही मानना पडेगा । किन्तु सुख और दुःख को अभिन्न मानना प्रतीत से । वर्धित है । जैसे दीपक की मन्दता अन्धेरे को उत्पन्न नहीं करती उसी प्रकार पुण्यकी । ॥५९०॥ .