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कल्पसूत्रे सशब्दार्थे
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खाता है, वह नरकमें नारकके रूप में उत्पन्न होता ही है। अगर नारक न होते तो 'शूद्रान्न- भोजी नारक होता है, यह वाक्य कैसे संगत होता ? इससे सिद्ध है कि नारक जीवों की सत्ता है । ऐसा सुनकर अकम्पित भी तीनसौ शिष्यों के साथ दीक्षित हो गये । मण्डित भी अपने तीनसौ अन्तेवासियों सहित भगवान के पास पहुंचे । उन्हें देखकर भगवानने इस प्रकार कहा- हे अचलभ्राता ! तुम्हारे अन्तःकरण में यह सन्देह हैकिं पुण्य ही जब प्रकृष्ट [उच्चकोटिका ] होता है तो वह सुखका कारण होता है, और जब वही पुण्य घट जाता है, और अल्प रहता है तब दुःखका कारण बन जाता हैं ? अथवा पाप, पुण्य से भिन्न कुछ स्वतंत्र वस्तु है ? अथवा पुण्य अथवा पापका कोई एक ही स्वरूप है ? या दोनों परस्पर निरपेक्ष स्वतंत्र है ? अथ च आत्मा के अतिरिक्त पुण्यपाप कोई वस्तु नहीं है? क्योंकि वेद में यह कहा गया है कि- 'जो वर्तमान है, जो अतीत में था, और भविष्यत् में होगा वह सब पुरुष [आत्मा] ही है, आत्मा से भिन्न पुण्य
अकम्पिता - दीनां शङ्कानिवारणम् प्रत्रजनं च
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