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अकम्पितादीनां शङ्कानिवारणम् प्रव्रजनं च
कल्पत्रे । उभयपि संतं तं वा अस्थि ? उय पुरिसा इरित्तं अन्नं किंपि नत्थि ?] अथवा पाप पुण्य सशब्दार्थे
से भिन्न कुछ स्वतंत्र वस्तु है ? अथवा पुण्य और पाप का कोई एक ही स्वरूप है ? ॥५८६॥
या दोनो परस्पर निरपेक्ष है स्वतंत्र हैं ? अथ च आत्मा के अतिरिक्त पुण्यपाप कोई वस्तु नहीं है ? [जओ वेएसु कहियं 'पुरुष एवेद सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् इच्चाइत्ति] क्योंकि वेद में यह कहा. गया है कि-जो वर्तमान है जो अतीत में था और भविष्यत् में होगा वह सव पुरुष [आत्मा] ही है। आत्मा से भिन्न पुण्य पाप आदि कोई पदार्थ नहीं है। [तं मिच्छा] तुम्हारे मन में ऐसा संशय है, किन्तु यह मिथ्या है। [इहलोए पुण्ण पावफलं पच्चक्खं लक्खिज्जइ] इस लोक में पुण्य और पाप का फल प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है [एवं ववहारओ वि पत्तिज्जइ-जं पुण्णस्स फलं दीहाउय लच्छीरूवा
रोग्ग सुकुलजम्माइ] इसके अतिरिक्त व्यवहार से भी प्रतीत होता है कि दीर्घ आयु ... लक्ष्मी, सुन्दररूप, आरोग्य, सुकुल में जन्म आदि पुण्य का फ़ल है [पावस्स य तव्वि
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॥५८६॥