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Imil अकम्पिता
कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥५८७॥
दीनां शङ्कानिवारणम प्रव्रजनं च
| वरीयं अप्पाउयाइ, इय पुण्णं पावं संतं तं वियाणाहि] और पाप का फल इससे विप| रीत अल्पायु आदि है अतः पुण्य और पाप को स्वतंत्र समझो [पुरुष एवेदं इच्चेयम्मि विसए अग्गिभूइपण्हे जं मए कहियं तं चेव मुणेयव्वं] यह सब पुरुष ही है इस विषय में अग्निभूति के प्रश्न के उत्तर में मैंने जो कहा है वही यहां समझ लेना चाहिये।
तब सिद्धते वि पुण्णं पावं च सतंतत्तणेण गहियं] तुम्हारे सिद्धान्त में भी पुण्य और al पाप को स्वतंत्र रूप से ही ग्रहण किया है [तं जहा-'पुण्यः पुण्येन कर्मणा, पापः पापेन Pil कर्मणा' इच्चाइ] जैसे पुण्य कर्म से पुण्यवान् होता है और पाप कर्म से पापी
होता है इत्यादि [अणेण सिद्धं पुण्ण पावं च उभयमवि सततं वत्थु विज्जइ] इससे | सिद्ध है कि पुण्य और पाप दोनों स्वतंत्र वस्तु है [इय सुणिय छिन्नसंसओ अयलभाया वि तिसयसीसेहिं पव्वइयो] यह सुनकर अचलभ्राता का संशय दूर हो गया। वह तीनसौ शिष्यों के साथ भगवान के समीप दीक्षित हो गये ॥१९॥ .
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