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________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥५८५॥ MEER2000000 [ एवं सोच्चा अकंपिओ वि तिसयसीसेहिं पव्वइओ ] इस प्रकार सुनकर अकम्पित भी तीनसौ शिष्यों के साथ दीक्षित हो गये ['अकंपिओ वि पव्वइओ' ति जाणिय पुण्ण पावसंदेहजुत्तो अयलभाया इय नामगो पंडिओ वि तिसयसीसेहिं परिवुडो पहु समीवे माओ] अकंपित भी दीक्षित हो गये, यह जानकर पुण्यपाप के विषय में सन्देह रखनेवाले अचलभ्राता नामक पण्डित तीन सौ शिष्यों के साथ प्रभु के समीप गये [तं दद्रूणं भगवं एवं वयासी] उन्हें देखकर भगवान ने ऐसा कहा - [भो अयलभाया ! तव हिययंसि इमो संसओ वहइ] हे अचलभ्राता ! तुम्हारे हृदय में ऐसा सन्देह है कि [जं पुण्णमेव पक्कि संतं पक्कि सुहस्स हेउ ?] पुण्य ही जब प्रकर्ष को प्राप्त होता है तो प्रकृष्ट सुख का हेतु हो जाता है [तमेव य अवचीयमाणमच्चंत थोवावत्थं संत दुहस्स हेऊ ? उयत इरित्तं पावं किं पि वत्थु अत्थि] और जब वही पुण्य घट जाता है और अल्प रहता है तब दुःख का कारण बन जाता है ? [अहवा एगमेव उभयरूवं ? अकम्पितादीनां शङ्कानिवारणम् प्रत्रजनं च ॥५८५ ॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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