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________________ सशन्दार्ये कल्पसूत्रे | तुम्हारे मन में यह संशय है कि-[जं नेरइया न संति 'न ह वै प्रेत्य नरके नारकाः संति'. अकम्पिता दीनां शङ्काइच्चाइ वयणाओ त्ति तं मिच्छा] नारक जीव नहीं है क्योंकि शास्त्र में कहा है-'परभव निवारणम् में नरक में नारक नहीं है तुम्हारा यह मत मिथ्या है। [नारया संति चेव नारक तो ॥ प्रव्रजनं च . !! है ही [न उण ते एत्थ आगच्छंति] किन्तु वे यहां आते नहीं है [ना णं मणुस्सा तत्थ । गमिउं सकंति] और न मनुष्य ही वहां जा सकते हैं। [अइसयणाणिणो ते पच्च| खत्तेण पासंति] अतिशयज्ञानी ही उन्हें प्रत्यक्ष में देखते है [तब सत्यमि वि-'नारको वै एष जायते यः शूद्रान्नमनाति' एयारिसं वक्कं लब्भइ] तुम्हारे शास्त्र में भी ऐसा वाक्य देखा है कि 'जो शूद्र का अन्न खाता है, वह नारक रूप में उत्पन्न होता है [जइ नारगा न भविज्जा ताहे सुदन्न भक्खगो नारगो होइ' त्ति वकं कहं संगच्छिज्जा ?] यदि । । नारक न होते तो 'शूद्र का अन्न खानेवाला नारक होता है यह कथन कैसे संगत होता। [अनेण सिद्धं णारगा संति ति] इससे नारकों का अस्तित्व सिद्ध होता है। ॥५८४॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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