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कल्पसूत्रे
सशब्दार्थे
अकम्पितादीनां शङ्कानिवारणम् प्रव्रजनं च
-- ॥५८३॥
'पुण्यः पुण्येण कर्मणा, पापः पापेन कर्मणा' इच्चाइ। अणेण सिद्धं पुण्णं पावं च उभयमवि संतं तं वत्थु विज्जइ इय रणिय छिन्न संसओ अयलभाया वि तिसयसीसेहिं पव्वइओ॥१९॥ .शब्दार्थ-[मोरियपुत्तं पव्वइयं सुणिउं अकंपिओ चिंतेइ] मोर्यपुत्र को प्रवजित हुआ सुनकर अकम्पित ने सोचा-[जो जो तस्स समीवे गओ सो सो पुणो न निव्वत्तो] जो जो उनके पास गया सो वापिस न लौटा । [सम्वेति संसओ तेण छिन्नो] उन्होंने सभी का संशय दूर कर दिया [सव्वे वि य पव्वइया] सभी दीक्षित हो गये [अओ अहमवि गच्छामि संसयं छेदेमित्ति कटु तिसयसीससहिओ पहुसमीवे संपत्तो] अतः मैं भी जाऊं और अपने संशय का निवारण करुं। इस प्रकार विचार कर तीनसौ शिष्यों के साथ वह महावीर प्रभु के समीप पहुंचा [तं दटुं भगवं वएइ भो अकंपिया ! तुज्झ| मणंसि इमो संसओ अत्थि] अकम्पित को देखकर भगवान ने कहा-हे अकम्पित !
|॥५८३॥
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