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कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥५७६॥
छिन्न संशय होकर साढे तीनसौ शिष्यों के साथ दीक्षित हो गये ॥१८॥
मंडित
मौर्यपुत्रयोः .. भावार्थ-तत्पश्चात् उपाध्याय सुधर्मा को प्रवजित हुआ सुनकर मण्डिक भी साढे
शङ्कातीनसौ शिष्यों के परिवार के साथ भगवान् के समीप पहंचे। भगवान् ने मण्डिक से निवारणम्
प्रव्रजनं च कहा-हे मण्डिक ! तुम्हारे मन में बन्ध-मोक्ष-विषयक संशय है। उस संशय का स्वरूप बतलाते हैं-जीव का बंध और मोक्ष होता है या नहीं? तुम्हारे इस संशय का कारण वेद का यह वचन है-'यह निर्गुण और सर्वव्यापी आत्मा न तो बंधन को प्राप्त होता है, न उत्पन्न होता है, न मुक्त होता है और न दूसरे को मुक्त करता है। इसी वेद वचन से तुम मानते हो कि जीव को न बंध होता है और न मोक्ष होता है। इस विषय में । तुम्हारी युक्ति यह है-अगर जीव का बंध माना जाय तो वह बंध अनादि है या सादिबाद में उत्पन्न हुआ है ? अगर नित्य माना जाय तो वह छूट नहीं सकता, क्योंकि जो पदार्थ आदि-रहित होता है, वह अन्तरहित भी होता है । इस प्रकार जो नित्य होता
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