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कल्पसूत्रे सशब्दार्थे १६८॥
गुण है वे ही गुण वृश्चिकादि शरीर में भी उपलब्ध होते है। इस प्रकार कार्य करण में सुधर्मा
Palभिध पंडिसादृश्य स्वीकार करने पर भी 'जैसा पूर्व भव होता है वैसा ही उत्तर भव भी होता है,
तस्य शङ्कायह सिद्ध नहीं होता। यह केवल मेरा ही अभिमत नहीं है, किन्तु वेद में भी कहा निवारणम्
प्रव्रजन च है-शृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते' इति । जो मनुष्य विष्टा सहित जलाया जाता है वह निश्चय ही शृगाल रूप में उत्पन्न होता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि भवान्तर में विसदृशता भी होती है । इस प्रकार के श्रीमहावीर के वचन सुनकर सुधर्मा भी छिन्न संशय हो गये। वह भी अपने पांचसौ शिष्यों के साथ प्रभु के समीप दीक्षित हो गये ॥१८॥
- मूलम्-तए णं उवज्झायं सुहम्मं पव्वइयं सोऊण मंडिओवि अद्रसयसीसेहिं परिखुडो पहुसमीवे समणुपत्तो। पहूय तं कहेइ-भो मंडिया ! तुज्झ मणंसि बंधमोक्ख विसओ संसओ वट्टइ-जं जीवस्स बंधो मोक्खो य हवइ न ॥५६८॥