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कल्पसूत्रे
मौर्यपुत्रयोः
सशब्दार्थे ॥५६९॥
प्रव्रजन च
वा। स एष विगुणो विभु न वध्यते संसरति वा मुच्यते मोचयति वा' मंडितइच्चाइ वेयवयणाओ जीवस्स न बंधो न मोक्खो। जइ बंधो मन्निज्जइ हाशका
निवारणम् ताहे सो अणागइओ वा, पच्छाजाओ वा, जइ अणागइओ ताहे सो न छुट्टिज्जइ-जो अणाइओ सो अनंताओ हवइ त्ति वयणा। जइ पच्छाजाओ ताहे कया जाओ ? कहं छुट्टिज्जइ ? ति। तं मिच्छालोए जीवा असुह कम्मबंधेण दुहं, सुहकम्मबंधेणं सुहं पत्ता दीसंति, सयलकम्मछेएण जीवा मोक्खं पावइत्ति लोए पसिद्धं । अणाई बंधो न छुट्टिज्जई' त्ति जं तए कहियं तंपि मिच्छा, जओ लोए सुवण्णस्स मट्टियाए य जो अणाइ संबंधो सो छुट्टिज्जइ . चेव तव सत्थेसु वि' वुत्तं-'ममेति बध्यते जंतुर्निर्ममेति प्रमुच्यते' इच्चाइ।पुणोवि
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