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कल्पसूत्रे । सुनकर उपाध्याय सुधर्मा नामक विद्वान् भी अपने संशय को दूर करने के लिये पांचसौ सुधर्मा
भिध पंडिसशब्दार्थ . शिष्यों को साथ लेकर भगवान् के निकट गये। भगवान् ने अपने समीप आये सुधमों
- ॥५६६॥ ॥ पण्डित से कहा-हे सुधर्मन् ! तुम्हारे चित्त में ऐसा संशय है कि जो जीव इस भव में निवारणम्
प्रव्रजनं च जिस योनि को प्राप्त हुवा है, वह जीव आगामि भव में भी उसी योनि में उत्पन्न होता है। जैसे शालि नामक धान्य बोने से शालिही उगते हैं, उसके अतिरिक्त जों आदि नहीं ... उगते । तुम्हें यह संशय वेद के इस वाक्य के कारण है कि-पुरुषो व पुरुषत्वमश्नुते । पशवः पशुत्वम्' निश्चय ही पुरुष पुरुषपन को ही प्राप्त करता है-और पशु पशुपन को ही प्राप्त होते हैं।' तुम्हारा यह मत मिथ्या है, क्योंकि जो जीव मार्दव (नम्रता) आदि गुणों से युक्त होता है, वह मनुष्य योनि के योग्य आयुको बांधता है और मनुष्यायु बांधनेवाला मनुष्य रूप में उत्पन्न होता है, किन्तु जो जीव माया-आदि गुणों से युक्त होता है, वह मनुष्य रूप से उत्पन्न नहीं होता, किन्तु तिर्यष रूप से उत्पन्न होता है। ॥५६६॥