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कल्पसूत्रे आदि में रूप, रस आदि पुद्गल के जो गुण होते हैं वही गुण वृश्चिक आदि के शरीर | IN सुधर्मासशब्दार्थ l में भी पाये जाते हैं। [एवं कज्जकारणाणं अणुरूवयासीगारे, वि एयं न सिज्झइ जं
भिध पंडि॥५६५॥
तस्य शङ्का| जहा पुवभवो तहेव उत्तरभवो वि होइ] इस प्रकार कार्य कारण की अनुरूपता स्वीकार निवारणम् कर लेने पर भी यह सिद्ध नहीं होता कि जैसा पूर्वभव है वैसा ही उत्तर भव होता है
प्रव्रजनं च | विएसु वि वुत्तं-'शृगालो व एष जायते यः सपुरिषो दह्यते' इत्यादि वेदों में भी कहा है कि-'जो मनुष्य मल सहित जलाया जाता है वह निश्चय ही शृगाल के रूप में उत्पन्न होता है, इत्यादि [अओ भवंतरे वेसारिस्सं भवइ जीवस्स त्ति सिद्धं] इससे भी सिद्ध
है कि भवांतर में भी जीव विसदृश रूप से भी उत्पन्न होता है [एवं सोऊण नट्ट संदेहो IMill सो वि पंचसयसिस्सेहिं पहुसमीवे पव्वइओ] यह कथन सुनकर सुधर्मा उपाध्याय का संशय नष्ट हो गया वह पांचसौ शिष्यों के साथ प्रवजित हो गये ॥१७॥
भावार्थ-इन्द्रभूति आदि चारों पण्डित प्रभु के समीप प्रबजित हो गये, यह
॥५६५॥