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________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थ सुहम्माभिध पंडि| तस्य शङ्कानिवारणम् प्रव्रजनं च ॥५६४॥ रूप कारण के अनुसार आगामी भव की आयु बंधती है [तं बद्धाउरूवकारणमणुसरीय चेव अणागयभवो भवइ] और बद्ध आयु रूप कारण के अनुसार ही आगामी भव होता है । [जइ कारणाणुसारमेव कज्ज होज्जा तया गोमयाइओ विछियाईणं उत्पत्ती नो संभवेज्जा] यदि कारण के अनुसार ही कार्य होता तो गोबर आदि से वृश्चिक आदि की उत्पत्ति संभव न होती। [इय कहणंपि न संगयं] यह कथन भी संगत नहीं है [जओ गोमयाइयं विछियाईणं जीवुप्पत्तीए कारणं नत्थि तं तु केवलं तेसिं सरीरुप्पत्तीए चेव कारणं] क्योंकि गोबर आदि वृश्चिक आदि के जीव की उत्पत्ति में कारण नहीं है मात्र वृश्चिक आदि के शरीर के उत्पत्ति में ही कारण होते हैं। [गोमयाइरूवकारण विछियाइसरीररूव कज्जस्स य अणुरूवया अस्थि चेव] और गोबर आदि रूप कारण तथा वृश्चिक आदि शरीररूप कार्य में अनुरूपता है ही [जओ गोमइए रूवस्साइ पुग्गलाणं जे गुणा होति ते चेव गुणा विछियाइसरीरे वि उवलब्भंति] गोबर ॥५६४॥ TRA
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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