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________________ मुहम्मा कल्पमत्रे तीव्रतर माया मिथ्यात्व आदि गुणों से युक्त होता है, वह मनुष्य रूपसे उत्पन्न नहीं livil भिध पंडिसशब्दार्थे र होता किन्तु तिथंच रूपसे उत्पन्न होता है। [जं कहिज्जइ-कारणाणुसारं चेव कज्ज है। तस्य शङ्का॥५६॥ हवइ, तं सच्चं] यह जो कहा जाता है कि कारण के अनुरूप ही कार्य होता है सो ठीक | निवारणम प्रव्रजनं च है [किंतु अणेण एवं न सिज्झइ जं जहा रूवो वट्टमाणभवो तहारूवो चेव आगामी भवो भविस्सइ] किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि जैसा वर्तमान भव है वैसा आगामी भव होगा . [जओ वट्टमाणागयभवाणं परोप्परं कज्जकारणभावो नस्थि] क्योंकि वर्तमान भव में परस्पर कार्य कारण भाव नहीं है। [अओ अणागयभवस्स कारणं वट्ठमाणभवो अत्थि इमो पंचआ भमभारिओ] अतः आगामी भवका कारण वर्तमान भव है, यह समझना भ्रम पूर्ण है [वट्टमाण भवे जस्स जीवस्स जारिसा अज्झवसायाहवंति तयज्झवसायरूवकारणाणुसारमेव जीवाणं अणागयभवस्स आऊ बंधइ] वर्तमान भव में जीस जीव के परिणाम-अध्यवसाय जैसे होते है उन्हीं अध्यवसाय ॥५६३॥ । ।
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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