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कल्पसूत्रे शब्दार्थे ॥५५७॥
अ
यजुर्वेद, और सामवेद स्वरूप थे। यह तीनों भाई अपने अपने मनोगत संदेहों को दूर करके दीक्षित हो गये । इस कारण यह महावीर कोई लोकोत्तर महापुरुष प्रतीत होते हैं। मैं भी उनके निकट जाऊं । यदि उन्होंने मेरी शंका का निवारण कर दिया तो मैं भी दीक्षा अंगीकार कर लूंगा। इस प्रकार विचार कर व्यक्त पण्डित भी अपने पांचसौ अन्तेवासियों को साथ लेकर भगवान् के निकट पहुंचे । भगवान् ने व्यक्तका नामोच्चारण करते हुए तथा उनके मनका संशय प्रकाशित करते हुए इस प्रकार संबोधन किया - हे व्यक्त ! तुम्हारे अन्तःकरण में ऐसा संशय है कि पृथिवी आदि पांच भूतों की सत्ता नहीं है । इन पांचों भूतों की जो प्रतीति होती हैं, वह जल में प्रतिबिम्बित होने वाले चन्द्रमा की प्रतीति की तरह भ्रान्ति मात्र है । यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् शून्य है । इस विषय में प्रमाण देते है- 'स्वप्नोपमं वै सकलम्' अर्थात् 'निश्चय ही सभी कुछ स्वप्न के सदृश है | जैसे स्वप्न में विविध प्रकार के पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं, किन्तु
व्यक्तस्य शङ्कानिवारणम् प्रत्रजनं च
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