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________________ व्यक्तस्य कल्पयत्रे शङ्का निवारणम् प्रव्रजनंच पुरिसो पडिभासइ] मालूम होता है, वह कोई अलौकिक महापुरुष हैं। [तयंतिए अहमवि सन्दार्थे । गच्छामि] मैं भी उन महापुरुष के पास जाऊं [जइ सो ममं संसयं छेइस्सइ. ताहे ॥५५५॥ अहमवि पव्वइस्सामित्ति कट्ट] अगर उन्होंने मेरे संशय को दूर कर दिया तो में भी | उनके पास प्रवजित हो जाऊंगा ऐसा विचार करके [सो वि पंचसयसिस्सपरिवार परिवुडो पहुसमीवे समागच्छइ] वह भी अपने पांचसौ शिष्यपरिवार के साथ भगवान के समीप पहुंचा। [पह य तं नामसंसयनिदेसपुव्वं आभासेइ-] प्रभुने उन्हें नाम और संशय का उल्लेख करके कहा-[भो वियत्ता ! तुज्झमणंसि-पुढवी आइपंचभूया न संति, तेसिं जा इमा पडिई जायइ सा जलचंदोव्व मिच्छा] हे व्यक्त ! तुम्हारे मनमें यह संशय है कि पृथ्वी आदि पांच भूत नहीं हैं, उनकी जो प्रतीति होती है सो जल चन्द्र के समान मिथ्या है [एयं सव्व जगं सुण्णं वट्टइ स्वप्नोपमं वै सकलं' इच्चाइ वेयवयणाओ त्तिसंसओ वट्टइ सो मिच्छा] यह समस्त जगत् शून्य रूप है वेद में भी कहा है-'स्वप्नोपमं ॥५५५॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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