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________________ व्यक्तस्य सशब्दार्थे निवारणम् प्रव्रजनं च कल्पमत्रे ॥ तेसिं जा इमा पडीइ जायइ सा जलचंदोव्व मिच्छा एयं सव्वं जगं सुण्णं Rem वट्टइ 'स्वप्नोपमं वै सकलं' इच्चाइ वेयवयणाओ त्ति संसओ वट्टइ सो मिच्छा। जंइ एवं ताहे भुवणपसिद्धा सुमिणा-सुमिण-पयत्था कहं दिसंतु ?। वेएसु वि वुत्तं-पृथिवी देवता आपो देवता' इच्चाइ, अओ पुढवी आइ पंचभूयाइ संति त्ति सिद्धं । एवं सोच्चा निसम्म छिन्नसंसओ वियत्तो वि पंचसयसीसेहिं । पहुसमीवे पव्वइओ ॥१६॥ शब्दार्थ-[तए णं वियत्ताभिहो माहणो वि विमरिसइ] इसके वाद व्यक्त नामक ब्राह्मण ने विचार किया [ज इमे वेयत्तयीसरूवा महापंडिया तओ वि भायरा छिन्न णिय णिय संसया पव्वइआ] यह वेदत्रयी के समान महापण्डित तीनों भाई अपने अपने संशयका निवारण करके दीक्षित हो गये हैं [अओ इमे को वि अलोइओ महा- ५५४॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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