________________
न
..
कल्पसूत्र In संसयं अवाकरेमित्ति कट्ट] अतएव में भी वहां जाकर अपने मन में रहे हुए' तज्जीव
It वायुभूते सशब्दार्थे तच्छरीर' अर्थात् वही जीव और वही शरीर है भिन्न नहीं इस विषय के संशय का
शङ्का॥५४७॥
निवारणम् निवारण करूँ। [सो वि पंचसयसिस्तपरिवुडो पहुसमीवे समणुपत्तो] ऐसा विचार कर वह प्रव्रजनं च भी पांचसौ शिष्यों के साथ प्रभु के पास पहुँचे [पह तं नामसंसयनिदेसपुव्वं वयइ-] प्रभु ने उसके नाम और संशयका उल्लेख करके कहा [-भो वाउभूई-! तुज्झ मणंसि संदेहो वट्टइ-जं सरीरं तं चेव जीवो] हे वायुभूति ! तुम्हारे मन में संदेह है कि जो शरीर है वही जीव है [नो अन्नो तव्वइरित्तो कोवि जीवो पच्चक्खाइपमाणेण तं उवलंभा भावा] शरीर से भिन्न कोई जीव नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से उसका उपलंभ नहीं होता [जलबुब्बुओ विव सो सरिराओ उपज्जए सरिरे चेव विलिज्जइ] जल के बुलबुले के समान जीव शरीर से उत्पन्न होता है और शरीर में ही विलीन हो जाता है [अओ नत्थि कोई अन्नो को बि पयत्थो जो परलोए गच्छेज्जा] अतएव उससे
॥५४७॥