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________________ सशब्दार्थे कल्पसूत्रे 'सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष बह्मचर्येण नित्यं ज्योतिर्मया हि शुद्धीयं पश्यति । वायुभूतेः शङ्काlugans धीरा यतयः संयतात्मानः' इति । जइ सरीराओ अन्नो को वि जीवो न हवे निवारणम् प्रव्रजनं च ज्जा .हे 'सत्येन तपसा बह्मचर्येण एष लभ्यः' इइ कहं संगच्छेज्जा। अओ सिद्धं सरिराओ भिन्नो अन्नो जीवो अत्थि त्ति । एवं पहुकयगुणेणं छिन्नसंसओ पडिबुद्धो वाउभूई वि पंचसयसिस्सेहिं पव्वइओ ॥१५॥ ... शब्दार्थ--[तए णं वाउभूई विप्यो' दुवे वि भायरा पव्वइय' त्ति जाणिऊणचिंतेइ] ... तब वायुभूति ब्राह्मण ने' मेरे दोनों भाई दीक्षित हो गये, यह जान कर विचार किया.... [सच्चमेसो सव्वण्णू दीसइ] सचमुच ही वह सर्वज्ञ प्रतीत होता है। [जप्पभावेण ममं दो वि भायरा तयंतिए पव्वइया] जिस सर्वज्ञता के प्रभाव से मेरे दोनों भाई उनके पास दीक्षित हुए है [अओ अहमवि तत्थ गमिय सयमणोगयं तज्जीव तच्छरीर विसयं
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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