________________
कल्पसूत्रे
दा ॥५४४॥
अमूर्त जीवका मूर्त कर्म से भी उपघात और अनुग्रह जान लेना चाहिये । इस प्रकार के कर्म का अस्तित्व दिखला कर अग्निभूति के परममान्य प्रमाण को प्रदर्शित करने के लिये कहते हैं - इसके सिवाय तुम्हारे अतिशय मान्य वेदों में भी, किसी भी स्थान पर कर्म का निषेध नहीं है । वेदों में कर्म का निषेध न होने से भी 'कर्म है' यह सिद्ध होता है । इस प्रकार प्रभु के कथन से कर्म के अस्तित्व संबंधी संशय के दूर हो जाने पर हृष्ट तुष्ट हुए अग्निभूति ने भी, इन्द्रभूति के समान, पांचसौ शिष्यों सहित श्रीमहावीर प्रभु के हाथ से दीक्षा ग्रहण करली ॥१४॥
मूलम् - तर णं वायुभूई विप्पों 'दुवेवि भायरा पव्वईय' त्ति जाणिउण चिंतेइ - सच्चमेसो सव्वण्णू दीसइ, जप्पभावेण मम दोवि भायरा तयंतिए पव्वइया । अओ अहमवि तत्थ गमिय सयमणोगयं तज्जीव तच्छरीरविसयं संसयं अवाकरेमित्ति कट्टु सो वि पंचसयसिरसपरिवुडो पहुसमीवे समणुपत्तो
अग्निभूतेः
शङ्कानिवारणम् प्रत्रजनं च
॥५४४॥